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लेटरल एंट्री पर बदला रुख़: क्या BJP सरकार तीसरी पारी में बैकफ़ुट पर है?

आठ अगस्त 2024. विपक्षी दलों की कड़ी आपत्तियों के बीच नरेंद्र मोदी सरकार ने वक़्फ संशोधन विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेज दिया.

विपक्ष का आरोप था कि इस विधेयक का मक़सद मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाना है और ये असंवैधानिक है.

13 अगस्त, 2024, कड़ी आलोचनाओं के चलते केंद्र सरकार ने प्रसारण विधेयक का नया मसौदा वापस ले लिया. आलोचना ये थी कि सरकार इस प्रस्तावित क़ानून के ज़रिए ऑनलाइन कॉन्टेंट पर ज़्यादा नियंत्रण करने की कोशिश कर रही थी.

20 अगस्त, 2024, केंद्र सरकार ने यूपीएससी को उस विज्ञापन को रद्द करने को कहा, जिसमें लेटरल एंट्री के ज़रिए 24 मंत्रालयों में 45 अधिकारियों की भर्ती की घोषणा की गई थी.17 अगस्त को छपे विज्ञापन के बाद विपक्षी दलों और बीजेपी के अपने सहयोगी दलों ने इस योजना की आलोचना करते हुए इस बात पर सवाल उठाया था कि इसके तहत होने वाली नियुक्तियों में आरक्षण को क्यों नज़रअंदाज़ किया गया.पिछले दो हफ़्ते में हुई इन तीन घटनाओं के बाद ये चर्चा ज़ोर पकड़ रही है कि क्या लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी केंद्र सरकार अपने कई प्रस्तावों या फैसलों को वापस लेने के लिए क्यों मजबूर हो रही है?

लेटरल एंट्री पर सियासी घमासान

पहले बात करते हैं लेटरल एंट्री योजना की. ऐसा नहीं है कि इस योजना के तहत पहली बार नियुक्तियाँ होने जा रही थीं. मोदी सरकार में साल 2018 में पहली बार इस योजना के तहत नियुक्तियाँ की गई थीं.तब से लेकर अब तक इस योजना के तहत 63 नियुक्तियाँ की गईं, जिनमें से 35 प्राइवेट सेक्टर से की गई. इस साल जुलाई तक लेटरल एंट्री के तहत नियुक्त गए 57 लोग अपने पदों पर काम कर रहे थे.लेकिन इस बार यूपीएससी ने जैसे ही 17 अगस्त को इस योजना के तहत 45 नई नियुक्तियों के लिए विज्ञापन निकाला, राजनीतिक बवाल शुरू हो गया.लेटरल एंट्री के विरोध में विपक्षी दलों ने कहा कि चूंकि इन नियुक्तियों में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है इसलिए ये योजना सामाजिक न्याय के ख़िलाफ़ है और वंचित वर्गों को दरकिनार कर पिछले दरवाज़े से भर्तियाँ करने की साज़िश है.इस मसले पर विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा था कि लेटरल एंट्री दलितों, ओबीसी और आदिवासियों पर हमला है और संविधान को नष्ट करने और बहुजनों से आरक्षण छीनने का प्रयास है.लेकिन केंद्र सरकार की परेशानी तब और बढ़ी जब उसी के घटक दल लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान ने भी कहा कि वो लेटरल एंट्री योजना को पूरी तरह ग़लत मानते हैं और ऐसी नियुक्तियों के पक्ष में नहीं हैं.20 अगस्त को केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने यूपीएससी अध्यक्ष को लिखी एक चिट्ठी में उनसे आग्रह किया कि वो 17 अगस्त को जारी किए गए विज्ञापन को रद्द कर दें.इस चिट्ठी में जितेंद्र सिंह ने लिखा कि पीएम मोदी की नज़र में लेटरल एंट्री की प्रक्रिया संविधान में निहित समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए. ख़ासकर आरक्षण के प्रावधानों को लेकर.उन्होंने लिखा कि प्रधानमंत्री के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण हमारे समाजिक न्याय के ढांचे का अहम हिस्सा है.साथ ही उन्होंने लिखा कि यह महत्वपूर्ण है कि सामाजिक न्याय के प्रति संवैधानिक जनादेश को बरक़रार रखा जाए ताकि हाशिए के समुदायों के योग्य उम्मीदवारों को सरकारी सेवाओं में उनका उचित प्रतिनिधित्व मिल सके.केंद्र सरकार के इस फ़ैसले के बाद राहुल गांधी ने कहा, “संविधान और आरक्षण व्यवस्था की हम हर क़ीमत पर रक्षा करेंगे. भाजपा की ‘लेटरल एंट्री’ जैसी साज़िशों को हम हर हाल में नाकाम करके दिखाएंगे. मैं एक बार फिर कह रहा हूं – 50% आरक्षण सीमा को तोड़ कर हम जातिगत गिनती के आधार पर सामाजिक न्याय सुनिश्चित करेंगे.”

अतीत में कई फ़ैसलों पर पुनर्विचार

हालिया घटनाओं से भले ही ये लग रहा हो कि केंद्र सरकार यू-टर्न ले रही है या रोल-बैक कर रही है.लेकिन अतीत में नज़र डालें तो प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली पिछली दो सरकारों में कई ऐसे मौक़े आए जब फ़ैसलों को वापस लिया गया या उन पर पुनर्विचार किया गया.इनमें से सबसे बड़ा फ़ैसला उन तीन कृषि क़ानूनों को साल 2021 में वापस लेने का था, जिसके विरोध में कई महीनों तक किसान आंदोलन चला.साल 2022 में सरकार ने पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल को तब वापस ले लिया, जब संसद की संयुक्त समिति ने विधेयक में 81 संशोधन करने की सिफ़ारिश की.हालांकि इस विधेयक को अगले ही साल 2023 में फिर से लाया गया और इसे संसद ने पारित कर दिया.साल 2014 में सत्ता में आने के एक साल बाद साल 2015 में सरकार ने भूमि अधिग्रहण क़ानून पर पुनर्विचार की मांग स्वीकार कर ली थी और 6 विवादास्पद संशोधनों को वापस ले लिया था.

संविधान और आरक्षण बना मुद्दा

प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद के मुताबिक़, लेटरल एंट्री योजना का विरोध साल 2018 में भी हुआ था, जब मोदी सरकार ने पहली बार इसके तहत नियुक्तियाँ की थी.वो कहते हैं, “लेकिन 2018 में विपक्षी दल असमंजस में थे. वो ख़ुद को लेकर कर आश्वस्त नहीं थे. सवाल सिर्फ़ उठा लेकिन उस वक़्त इस सवाल को जितना मज़बूती से रखना चाहिए था, नहीं रखा गया. अभी का माहौल बिल्कुल अलग है.””और दूसरी चीज़ जो हालिया चुनावों के दौरान सामाजिक विमर्श और राजनीतिक विमर्श में बिल्कुल आगे आ गई है वो है संविधान. संविधान में भी जो चीज़ सबसे ज़्यादा आगे आ गई है वो है आरक्षण. अलग-अलग तरह से ये आशंकाएं बन रही हैं कि आरक्षण की योजना को सरकार कमज़ोर और अप्रासंगिक करने की कोशिश कर रही है.””बीजेपी को भी दलित और ओबीसी वोट करते हैं. लोकसभा चुनावों में दिखा कि दलित अलग-थलग हो गए. ये ख़तरा बीजेपी नहीं ले सकती है.”प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद का मानना है कि जहाँ तक क़ानून बनाने की बात है, आने वाला समय सरकार के लिए मुश्किल भरा होने वाला है.वे कहते हैं, “सर्वसम्मति बनाकर चलना इस सरकार के स्वभाव में नहीं है. तो हर बार उन्हें क़दम पीछे खींचने पड़ेंगे. यह सरकार अपनी मर्ज़ी से काम करेगी और जब भी कोई दिक़्क़त आएगी तो उसे पीछे हटना पड़ेगा.”

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